हम सभी इस बात से वाकिफ है कि भारत एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश है लेकिन बीते हुए कुछ साल और बीते हुए कुछ दिन एक दूसरी भारत बनकर उभरी है या फिर ये कहें की ये वह भारत देश है ही नहीं जिसकी आजादी के लिए लोगों ने बलिदान दिया है। भारतीय सरकार और उनके विपक्ष को आजतक इस बात का पता नहीं चल सका है कि किस कानून का समर्थन करना है और किस कानून का विरोध?
हम सभी एक आजाद देश में रहते है, लोकतांत्रिक देश होने के कई फायदे है और अपनी बात खुलकर रखना उन्हीं फायदों में से एक है। भारत में हर किसी को अपनी बात रखने का पूरा हक है और हरेक बात को रखने का या लोगों तक पहुँचाने का एक तरीका होता है। जिससे आपकी बात सरकार तक पहुँच भी जाये और जनता को किसी भी प्रकार कि दिक्कत का सामना ना करना पङे लेकिन हम भारतीय जितना अपनी संस्कार और सभ्यता के लिए जाने जाते है उतना ही हम अपनी जाहीलियत के लिये भी जाने जाते।
इसे हम दो अलग-अलग भागों में बांट देते है, पहला भाग कोविड-19 के आने के पहले समय को जानेंगे और दूसरे भाग में कोविड-19 के बाद के वक्त को जानेंगे। कोविड-19 के भारत आगमन से ठीक पहले भारतीय सरकार नागरिकता संशोधित बिल लेकर आयी, इस बिल को लेकर पूरे देश में विरोध प्रदर्शन शुरु हो गया था और देश भर के सरकारी महाविद्यालयों में इस बिल को लेकर प्रदर्शन चल रहा था। हर कोई सड़क पर उतर गया था और इसी भीड में हमें लोगों की जाहीलियत भी देखने के लिए मिली, इस बिल को लेकर विरोध प्रदर्शन करना किसी भी तरीके से जायज नहीं था क्योंकि विरोध करने वालों में से कइयों को कैब के बारे में कुछ जानकारी ही नहीं थी। हालांकि ये बात अलग है कि कैब का आना भारत देश के धर्मनिरपेक्षता होने पर एक सवाल कि तरह है, कैब कानून आना लोगों के लिए ऐसा हो गया था कि किसी के व्यक्तिगत धर्म पर हमला किया गया हो लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।
हमें एक बात कभी नहीं भुलनी चाहिए कि धर्म हमें इंसानियत सिखाता है लेकिन इंसानियत का कोई धर्म नहीं होता है और इसी बीच कोविड-19 का भारत में आगमन हुआ और लोगों को ना चाहते हुए भी सड़क छोड़कर घर के तरफ जाना पङा। कोविड-19 के बाद जब भारत खुला तो सरकार के सामने कई सारे सवाल थे और कई सारे चुनौतियों भी और इन सवालों के जबाव के तौर पर सरकार नये और कुछ अलग योजनाओं को लेकर आयी थी। भारत देश के खुलने से पहले ही देश के मुखिया ने ये साफ कर दिया था कि भारत देश को “आत्मनिर्भर” बनने कि जरूरत है और साथ में प्रधानमंत्री जी ने एक मंत्र भी दिया था “आपदा को अवसर” में बदलें। सवाल कठिन था लेकिन जबाव ढूंढना हम सभी का कर्तव्य बन चुका है।
भारत देश के खुलने के साथ भारतीय सरकार किसानों के लिए कुछ बेहतर और नये कृषि कानून लेकर आयी, जिसे हरेक सदन में बड़े ही आराम से मंजूरी भी मिल गयी और भारतीय सरकार ने इस कृषि कानून को तत्काल प्रभाव से पारित भी कर दिया। भारतीय सरकार कुल 3 कानून लेकर आयी, लेकिन देश के पालनहार को ये कानून बिल्कुल भी पसंद नहीं आया और उन्होंने इस तामील में लाने से इनकार कर दिया। ऐसे में सरकार ने सामने एकमात्र रास्ता था कि भारतीय सरकार नये कृषि-कानून को वापस ले और किसानों कि बात सुने लेकिन सरकार के रवैया से ऐसा लग नहीं रहा था कि सरकार इस कानून को वापस लेने वाली है। अब जब सरकार ने देश के किसानों की बात मानने से इनकार कर दिया तो देश के पालनहार अपने खेतों को छोङकर सड़क पर आ गये और कुछ इस तरह से किसानों ने नये कृषि कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरु किया।
किसी भी देश में अगर किसान सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए सड़क पर उतर जाये तो ये देश का दुर्भाग्य है, खासकर भारत जैसे देश में जिसके दूसरे प्रधानमंत्री ने “जय जवान और जय किसान” का नारा दिया हो। देखते ही देखते किसानों का विरोध प्रदर्शन को महीनों हो चला लेकिन सरकार भी अभी भी अपने कानून को लेकर सकारात्मक थी और किसान से किसी भी प्रकार के मोल-भाव करने के मुड में नहीं थी। हमारे देश के किसान भी कहाँ हार मानने वाले थे, किसानों के इस विरोध प्रदर्शन को कई राजनीतिक पार्टियों और अलग-अलग फिल्मी सितारों का साथ मिला।
इस बात में कोई शक नहीं है कि किसानों का ऐसा विरोध आजतक पुरी दुनिया में कहीं नहीं हुआ होगा, किसान अब तक सड़क पर पुरी तरह से बस चुके है और किसानों के प्रदर्शन में पिज्जा ने लोगों को अलग ही चर्चा करने का मुद्दा बना दिया।
अब जब सरकार किसानों की नहीं सुन रही थी तो पहले किसानों ने नेशनल हाईवे को बंद किया, इससे आम जनता को काफी तकलीफ हुआ और भारत देश में ये नया नहीं हो रहा था लेकिन इस विरोध प्रदर्शन के दौरान किसान की एक अलग ही छवि लोगों को देखने के लिए मिली। जहाँ हम किसान को “जमीन से जुड़े हुए एक सरल और सहज इंसान” के तौर पर जानते थे लेकिन शायद समय के साथ किसान कि परिभाषा भी बदल गयी है। किसान चाहते थे की 26 जनवरी के दिन लाल-किला में उन्हें करतब करने का मौका दिया जाये, सरकार किसानों की इस अर्जी को स्वीकार भी किया और किसानों को करतब करने का मौका मिला लेकिन किसानों ने इरादे अब तक उग्र हो गये थे।
जब किसानों को करतब दिखाने के लिए मंच दिया गया तो किसानों को देखकर ऐसा लग रहा था कि लाल-किला में बुल रेस शुरु हो गया हो। ये सवाल इसलिये है क्योंकि किसान ट्रैक्टर से करतब दिखाना चाहते थे या लोगों को कुचलना चाहते थे, ये समझ पाना मुश्किल था क्योंकि जब पुलिस वालों ने इन्हें समझाने की कोशिश की तो किसानों नहीं माने और कुछ देर के बाद किसान बेकाबू हो चुके थे। ऐसे समय पुलिस इन्हें रोकना तो चाहती थी लेकिन किसान खाकी की भी इज्जत नहीं कर रहे थे, लाल-किला का मैदान जहाँ हर साल ऐतिहासिक दिन पर परेड हुआ करता था अब तक वह जगह बुल रेस की रेसिंग ट्रैक बन चुकी थी। किसानों का उत्पात सिर्फ यहीं तक सिमित नहीं रहा, मौका मिलने पर इन्होंने लाल-किला में भी तोड-फोड मचाया था लेकिन हद तो तब हो गयी जब लाल-किला पर किसानों ने खालिस्तानी झंडा भी लहरा दिया। किसानों का विरोध प्रदर्शन हक की लड़ाई से कब धार्मिक लड़ाई कब बन गया ये लोगों को पता भी नहीं चला।
हालांकि अपनी बात रखने का हर किसी को पूरा हक है लेकिन हक और विरोध प्रदर्शन के नाम पर दंगा फैलाना या फिर दंगे का शक्ल देना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। हर किसी इस बात को पता होना चाहिए कि सरकार किसानों की सुनेगी, दंगाईयों की नहीं, किसानों का विरोध प्रदर्शन कभी भी गलत नहीं था लेकिन तभी तक जबतक आपके विरोध प्रदर्शन से आम जनता को किसी भी प्रकार की परेशानी ना हो। हम सभी जानते है कि पिछले कुछ समय में खालिस्तान को लेकर मांग काफी तेज हुई है और कहीं ऐसा तो नहीं कि किसान विरोध प्रदर्शन के आङ में अपने खालिस्तान मंसूबे भी पूरे कर रहे है।
हालांकि इस तरह की हरकत से
किसानों ने खुद को ही बदनाम किया है और लाल-किला पर खालिस्तानी झंडा को फहराना
लोगों तक गलत संदेश देने जैसा है जो की गलत है। किसानों की ये हरकत किसानों को
लोगों के नजर में खलनायक बनाती, इतना कुछ होने के बावजूद अभी भी कुछ लोग किसान के
साथ और कुछ लोग कृषि-कानून के साथ है। हालांकि इन सबके बाद किसानों ने अपनी सफाई में कहा था लाल-किला पर उत्पात मचाने
वाले लोग किसान नहीं हैं।
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